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मीराबाई के मन में कृष्ण के प्रति प्रेम - Mirabaai ke man me Krishan ke prati prem
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मीराबाई के बालमन में कृष्ण की ऐसी छवि बसी थी कि यौवन काल से लेकर मृत्यु तक मीरा बाई ने कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना.
जोधपुर के राठौड़ रतनसिंह जी की इकलौती पुत्री मीराबाई का जन्म सोलहवीं शताब्दी में हुआ था. बचपन से ही वे कृष्ण-भक्ति में रम गई थीं. मीराबाई का कृष्ण प्रेम बचपन की एक घटना की वजह से अपने चरम पर पहुंचा था. मीराबाई के बचपन में एक दिन उनके पड़ोस में किसी बड़े आदमी के यहां बारात आई थी. सभी स्त्रियां छत से खड़ी होकर बारात देख रही थीं. मीराबाई भी बारात देख रही थीं.
बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है? इस पर मीराबाई की माता ने कृष्ण की मूर्ति के तरफ इशारा करके कह दिया कि वही तुम्हारे दुल्हा हैं. यह बात मीरा बाई के बालमन में एक गांठ की तरह बंध गई. बाद में मीराबाई का विवाह महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज से कर दिया गया. इस शादी के लिए पहले तो मीराबाई ने मना कर दिया पर जोर देने पर वह फूट-फूट कर रोने लगीं और विदाई के समय कृष्ण की वही मूर्ति अपने साथ ले गईं जिसे उनकी माता ने उनका दुल्हा बताया था. मीराबाई ने लज्जा और परंपरा को त्याग कर अनूठे प्रेम और भक्ति का परिचय दिया था.
विवाह के दस बरस बाद इनके पति का देहांत हो गया था. पति की मृत्यु के बाद ससुराल में मीराबाई पर कई अत्याचार किए गए. इनके देवर राणा विक्रमजीत को इनके यहां साधु संतों का आना-जाना बुरा लगता था. पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन प्रति दिन बढ़ती गई. ये मंदिरों में जाकर वहां मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं.
कहते हैं मीराबाई के कृष्ण प्रेम को देखते हुए और लोक लज्जा के वजह से मीराबाई के ससुराल वालों ने उन्हें मारने के लिए कई चालें चलीं पर सब विफल रहीं. घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं. मीराबाई जहां जाती थीं, वहां उन्हें लोगों का सम्मान मिलता था. मीराबाई कृष्ण की भक्ति में इतना खो जाती थीं कि भजन गाते-गाते वह नाचने लगती थीं.
मीराबाई ने भक्ति को एक नया आयाम दिया है. एक ऐसा स्थान जहां भगवान ही
इंसान का सब कुछ होता है. दुनिया के सभी लोभ उसे मोह से विचलित नहीं कर
सकते. एक अच्छा-खासा राजपाट होने के बाद भी मीराबाई वैरागी बनी रहीं.
मीराजी की कृष्ण भक्ति एक अनूठी मिसाल रही है.
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।
भगत देखि राजी भइ, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।
कहा जाता है कि मीराबाई रणछोड़ जी में समा गई थीं. मीराबाई की मृत्यु के विषय में किसी भी तथ्य का स्पष्टीकरण आज तक नहीं हो सका है.
एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन (मथुरा) की एक गोपिका थीं। उन दिनों वह राधा की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका विवाह एक गोप से कर दिया गया था। विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए। बाद के समय में जोधपुर के पास मेड़ता गाँव में 1504 ई. में राठौर रतन सिंह के घर गोपिका ने मीरा के रूप में जन्म लिया। मीराबाई ने अपने एक अन्य दोहे में जन्म-जन्मांतर के प्रेम का भी उल्लेख किया है-
"आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, विरह कलेजा खाय॥
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैना॥
कहा करूं कुछ कहत न आवै, मिल कर तपत बुझाय॥
क्यों तरसाओ अतंरजामी, आय मिलो किरपा कर स्वामी।
मीरा दासी जनम जनम की, परी तुम्हारे पाय॥" मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की उत्पत्ति से संबंधित एक अन्य कथा भी मिलती है। इस कथानुसार, एक बार एक साधु मीरा के घर पधारे। उस समय मीरा की उम्र लगभग 5-6 साल थी। साधु को मीरा की माँ ने भोजन परोसा। साधु ने अपनी झोली से श्रीकृष्ण की मूर्ति निकाली और पहले उसे भोग लगाया। मीरा माँ के साथ खड़ी होकर इस दृश्य को देख रही थीं। जब मीरा की नज़र श्रीकृष्ण की मूर्ति पर गयी तो उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें याद आ गयीं। इसके बाद से ही मीरा कृष्ण के प्रेम में मग्न हो गयीं।
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