मूली की खेती करने का आधुनिक तरीका Mooli Ki Kheti karne ka aadhunik tarika
मूली की खेती करने का आधुनिक तरीका Mooli Ki Kheti karne ka aadhunik tarika मूली की खेती कैसे करें Mooli (Radish) Ki Kheti Kaise Kare मूली की वैज्ञानिक खेती करने का तरीका Muli ki vaigyanik kheti karne ka tarika hindi me jankari. खेती मे अधिकतम उत्पादन एवं फसल सुरक्षा. अधिकतम उपज के लिए ध्यान रखने योग्य बातें. बेहतर फसल के लिए टिप्स सुझाव और उपाय. कम खर्च में ज्यादा पैदावार कैसे ले. अच्छी फसल तैयार करने के लिए अपनाए ये तरीके.

मूली जड़ वाली फसलों में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । मूली गृह-वाटिका की भी मुख्य फसल है । इसको भोजन के साथ कच्ची सेवन करते हैं । इसके अतिरिक्त सलाद में, परांठे बनाकर तथा अचार में प्रयोग करते हैं । मूली के सेवन से पाचन-क्रिया सक्रिय रहती है । इसकी पत्तियों को मिलाकर भूजी के रूप मे खाना एक अलग ही स्वाद है । पेट गैस रोगियों के लिए इसका सेवन अच्छा रहता है तथा इसमें पानी की मात्रा अधिक होती है ।

मूली जड़ वाली फसलों में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । मूली गृह-वाटिका की भी मुख्य फसल है । इसको भोजन के साथ कच्ची सेवन करते हैं । इसके अतिरिक्त सलाद में, परांठे बनाकर तथा अचार में प्रयोग करते हैं । मूली के सेवन से पाचन-क्रिया सक्रिय रहती है । इसकी पत्तियों को मिलाकर भूजी के रूप मे खाना एक अलग ही स्वाद है । पेट गैस रोगियों के लिए इसका सेवन अच्छा रहता है तथा इसमें पानी की मात्रा अधिक होती है ।
जड़ व मुलायम पत्तियों के सेवन से शरीर को पोषक-तत्वों की प्राप्ति होती है । जैसे-कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम तथा विटामिन ‘ए’ व ‘सी’ प्रचुर मात्रा में पर्याप्त होते हैं ।
मूली की खेती के लिए आवश्यक भूमि व जलवायु - मूली जड़ वाली फसल होने के कारण सर्वोत्तम बलुई-दोमट रहती है । जल-निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए । पथरीली-भूमि उपयुक्त नहीं होती है तथा जीवांशयुक्त भूमि में फसल शीघ्र तैयार होती है । भूमि का पी. एच. मान 6-7 के बीच का उचित होता है ।
मूली के लिए जलवायु ठण्डी होनी चाहिए । इसमें पाला व ठन्ड दोनों को सहने की क्षमता होती है | अच्छे उत्पादन के लिये 10-15 डी0 से0 तापमान उपयुक्त रहता है तथा अधिक वृद्धि करती है । अधिक तापमान से जड़ें कड़ी व चरपराहट तीव्र हो जाती हैं।
मूली की खेती के लिए खेत की तैयारी - इस फसल की तैयारी उचित ढंग से करें । मिट्टी बिल्कुल भुरभुरी करें क्योंकि ढीली मिट्टी में जड़ें अधिक वृद्धि करती हैं । इस प्रकार से मिट्टी के अनुसार 4-5 जुताई करनी चाहिए तथा खेत में से सूखी घास को बाहर निकाल कर जलायें तथा बाद में 4 * 3 मीटर की छोटी-छोटी क्यारियां बनायें।
बगीचों के लिये मूली मुख्य फसल है । इसलिए अपने क्षेत्र को फावड़े से 4-5 बार खोदें मिट्टी को भुरभुरी कर लें | गमलों में मूली पत्तियों के लिये लगा सकते हैं | लेकिन गमलों में जड़ें अधिक नहीं बढ़ती । अत: गमलों में भी खाद मिट्टी का मिश्रण भरकर तैयार कर लें ।
मूली की उन्नतशील किस्में:-
पूसा-चेतकी- ये अधिक उपज देने वाली किस्म है । जो शरद व ग्रीष्म ऋतु दोनों के लिए उपयुक्त है । ग्रीष्म ऋतु में गर्मी सहने की क्षमता रखती है । ये 40-45 दिन में तैयार हो जाती है । इसकी जड़ें मध्य लम्बी, नीचे से नुकीली तथा स्वाद वाली होती हैं ।
पूसा-हिमानी- ये किस्म 50-55 दिन में तैयार गूदा करारा, ऊपर से हरी तथा मीठे स्वाद वाली होती है । मध्य दिसम्बर मध्य फरवरी तक बोते हैं । यह अधिक ठन्डे स्थानों पर आसानी से उगाई जाती है । मूली सफेद तथा नीचे से कुछ थोथी होती है ।
पूसा-देशी- यह किस्म शीघ्र तैयार होती है । 30-45 सेमी. लम्बी जड़ें होती हैं जो 45-50 दिन लेती हैं । इस किस्म को मध्य अगस्त से मध्य अक्टूबर तक बोते हैं । यह अगेती किस्म है ।
पूसा-रश्मि- यह किस्म सितम्बर-नवम्बर तक बोते हैं । जड़ें लम्बी, सफेद, थोड़ी ऊपर हरापन लिये हुये होती हैं । जड़ें स्वाद में तीखी होती हैं जिन्हें स्वाद से खाते हैं । 50-55 दिन में तैयार होती है ।
जापानी-व्हाइट- यह किस्म दूध जैसी सफेद, गोलाकार, चिकनी व गूदा करारा, खुशबूदार होता है । 55-60 दिन में खाने लायक हो जाती है जो अक्टूबर-दिसम्बर तक तैयार होती है ।
रैपिड रैड व्हाइट– यह किस्म शीघ्र तैयार होती है जो कि 25-30 दिन में मिलनी आरम्भ हो जाती है । जड़ें गोलाकार, चिकनी, चमकीली, नीचे से सफेद तथा गूदा सफेद कुरकुरा होता है । बुवाई अक्टूबर-मध्य फरवरी तक करते हैं ।
बीज की मात्रा व बुवाई का समय - मूली के बीज की मात्रा तापमान पर निर्भर करती है । यह सभी प्रकार के मौसम में बोयी जाती है । इस प्रकार से मूली पूरे वर्ष बोई जा सकती है । बीज की मात्रा 8-10 किलो प्रति हैक्टर की आवश्यकता पड़ती है ।
बुवाई मैदानी भागों में मध्य अगस्त-सितम्बर से जनवरी-फरवरी तक करते हैं तथा पहाड़ी क्षेत्रों में मार्च से अगस्त तक बुवाई करते रहते हैं । केवल पूसा चेतकी किस्म की बुवाई को मैदानी क्षेत्रों में मार्च-अप्रैल में करते हैं ।
बगीचों के लिए बीज की मात्रा 20-25 ग्राम 8-10 वर्ग मी. क्षेत्र के लिए काफी होती है तथा गमलों के आकार के अनुसार 4-5 बीज बोयें ।
खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग - मूली के लिए सड़ी गोबर की खाद 20-22 ट्रैक्टर-ट्रौली प्रति हैक्टर डालकर मिट्टी में मिला दें तथा उर्वरक-नत्रजन 90-100 किलो, 425 किलो यूरिया, फास्फोरस 40 किलो, 240 किलो सिंगल सुपर फास्फेट तथा पोटाश 60 किलो (100 किलो म्यूरेट आफ पोटाश) प्रति हैक्टर पर्याप्त होता है । नत्रजन की आधी फास्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई से 10-15 दिन पहले मिट्टी में डालें तथा एक जुताई कर लें । शेष नत्रजन को दो भागों में बांटकर पौधों पर 15-20 दिन व 35-40 दिन पर डालें जिससे पत्तियों व जड़ों की वृद्धि हो सके ।
बगीचों के लिए 8-10 मी. क्षेत्र के लिए खाद 5-6 टोकरी तथा 500 ग्राम यूरिया 300 ग्राम डाई अमोनियम सल्फेट तथा 400 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश देने से मूली की जड़ें व पत्तियां अधिक मिलती हैं । प्रत्येक गमलें में 3-4 चम्मच उर्वरक डालें तथा पौधे बड़े होने पर 1-2 चम्मच यूरिया की 15-20 दिन के अन्तर से डालें । इसमें वृद्धि अच्छी होती है ।
सिंचाई एवं खरपतवार-नियंत्रण - मूली की बुवाई के समय पर्याप्त नमी है तो पहली सिंचाई 12- 15 दिन बाद करें । यदि कम नमी हो तो हल्की सिंचाई शीघ्र कर दें तथा अन्य सिंचाई मौसम व नमी के आधार पर करते रहें, औसतन सप्ताह बाद करते रहें । मूली की फसल के लिए पानी अधिक चाहिए जिससे उपज पर प्रभाव पड़ता है |
सिंचाई के बाद 1-2 निकाई-गुड़ाई करें जिससे खरपतवार न हो पायें । यूरिया की मात्रा खरपतवार रहित फसल में ही डालें अन्यथा खरपतवार ही पोषक तत्वों को लें लेंगे । इसी समय हल्की पौधों पर मिट्टी चढ़ाये जिससे जड़ें अधिक बढ़ सकें ।
कीटों से मूली के पौधों की सुरक्षा कैसे करें - मूली को कुछ कीट क्षति पहुंचाते हैं ।
एफिड्स व पत्ती काटने वाला कीड़ा- दोनों पर रोगोर या मेलाथियान द्वारा नियन्त्रण किया जा सकता है ।
पत्तियों का धब्बा रोग– इस पर बेवस्टिन या डाइथेन एम-45 या जैड-78 के 2% के घोल से नियन्त्रण कर सकते हैं ।
उपज - मूली की उपज किस्म समय तथा भूमि की उर्वरा-शक्ति पर निर्भर करती है । औसतन उपज 250-500 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त होती है । बगीचों में मूली की पैदावार 20-25 किलो जाड़े के मौसम में 8-10 वर्ग मी. क्षेत्र में पैदा की जा सकती है।
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