जौ की आधुनिक खेती करने की जानकारी Jau ki aadhunik kheti karne ki jankari
जौ की आधुनिक खेती करने की जानकारी Jau ki aadhunik kheti karne ki jankari. जौ की खेती कैसे करे Jau ki Kheti Kaise Kare जौ की वैज्ञानिक खेती करने का
तरीका Jau ki vaigyanik kheti karne ka tarika hindi me jankari. जौ की खेती. जौ की उन्नत खेती प्रजातियाँ. सीमित लागत अधिक मुनाफा. जौ की आधुनिक उन्नत खेती. इस प्रकार करें जौ की उन्नत खेती. जौ की खेती के बारे में जानकारी. भारत में जौ की खेती जौ की किस्म जौ की प्रजाति जौ की उन्नत किस्में जो की फसल. जौ की उन्नत खेती और उत्पादन तकनीक. जौ की खेती बंद मत कीजिए. जौ की खेती की रकबा लगातार घट रहा था. कम लागत में भी जौ की भरपूर उपज. अनाज-जौ की किसानों के लिए फायदेमंद खेती. रबी की फसल - जौ परिचय जौ की खेती सिंचाई एवं उर्वरक के सीमित साधन एवं असिंचित दशा में गेहूं की अपेक्षा अधिक लाभप्रद है.
भारत के अलावा अर्जेंटीना, फ्रासं, कनाडा, रूस, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, जर्मनी, तुर्की व यूक्रेन वगैरह देशों में भी जौ की खेती की जाती है. यह गेहूं से ज्यादा सहनशील पौधा है. इसे कई तरह की मिट्टियों में उगाया जा सकता है. जौ का भूसा चारे के काम में लाया जाता है. यह हरा व सूखा दोनों रूपों में जानवरों को खिलाने में इस्तेमाल किया जाता है. सिंचित दशा में जौ की खेती गेहूं के मुकाबले ज्यादा फायदेमंद है.
भारत के अलावा अर्जेंटीना, फ्रासं, कनाडा, रूस, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, जर्मनी, तुर्की व यूक्रेन वगैरह देशों में भी जौ की खेती की जाती है. यह गेहूं से ज्यादा सहनशील पौधा है. इसे कई तरह की मिट्टियों में उगाया जा सकता है. जौ का भूसा चारे के काम में लाया जाता है. यह हरा व सूखा दोनों रूपों में जानवरों को खिलाने में इस्तेमाल किया जाता है. सिंचित दशा में जौ की खेती गेहूं के मुकाबले ज्यादा फायदेमंद है.
उन्नतशील किस्में - छिलका वाली प्रजातियां : अंबर (के 71), ज्योति (के 0572/10), आजाद (के 125), के 141, आरडी 2503, आरडी 2552, आरडी 2035, आरडी 2508, आरडी 2559, आरडी 2624, आरडी 2660, हरितमा (के 560), प्रीती (के 409), जागृति (के 287), लखन (के 226), मंजुला (के 329), आरएस 6, नरेंद्र जौ 1 (एनडीबी 209), नरेंद्र जौ 2, नरेंद्र जौ 3 (एनडीबी 1020), के 603, एनडीबी 1173, एसओ 12 वगैरह.
बिना छिलके वाली प्रजातियां : गीतांजली (के 1149), डीलमा, नरेंद्र जौ 4 (एनडीबी 943/उपासना).
माल्ट वाली प्रजातियां : प्रगति (के 508 - 6 धारीय), ऋतंभरा (के 501 - 6 धारीय), आरडी 2715, डीडब्ल्यूआर 28, डीएल 88 (6 धारीय), रेखा (बीसीयू 73 - 2 धारीय).
बीज का चुनाव - जौ की बोआई के लिए जो बीज प्रयोग में लाया जाए, वह रोग मुक्त, प्रमाणित व इलाके के मुताबिक उन्नत किस्म का होना चाहिए. बीजों में किसी दूसरी किस्म के बीज नहीं मिले होने चाहिए. बोने से पहले बीज के अंकुरण फीसदी का परीक्षण जरूर कर लेना चाहिए. यदि जौ का प्रमाणित बीज न मिले तो बीजों का उपचार जरूर करना चाहिए.
खेत की तैयारी : जौ की बोआई के लिए 2-3 बार देशी हल या तवेदार हल से जुताई करनी चाहिए. मिट्टी को भुरभुरा कर देना चाहिए, जिस से बीजों का अंकुरण अच्छी तरह से हो सके.
बोने का समय : जौ रबी मौसम की फसल है, जिसे सर्दी के मौसम में उगाया जाता है. उत्तराखंड के अलगअलग भागों में जौ का जीवनकाल अलगअलग रहता है. आमतौर पर जौ की बोआई अक्तूबर से दिसंबर तक की जाती है. असिंचित क्षेत्रों में 20 अक्तूबर से 10 नवंबर तक जौ की बोआई करनी चाहिए, जबकि सिंचित क्षेत्रों में 25 नवंबर तक बोआई कर देनी चाहिए. पछेती जौ की बोआई 15 दिसंबर तक कर देनी चाहिए.
बीज की मात्रा : असिंचित क्षेत्रों में जौ के बीज की मात्रा 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है. सिंचित क्षेत्रों में जौ के बीज की मात्रा 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है. पछेती जौ की बोआई लिए बीज की मात्रा 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है.
बोआई की विधि : जौ की बोआई छिटकवां विधि व लाइन में की जाती है. छिटकवां विधि में हाथ से पूरे खेत में बीजों को बिखेर दिया जाता है. इस विधि से पूरे खेत में एकसमान बीज नहीं गिर पाते हैं, लिहाजा बोआई लाइनों में करें. जागरूक किसान जौ की बोआई हल के पीछे लाइनों में करते हैं या खेत तैयार हो जाने पर डिबलिंग विधि द्वारा बीज बोते हैं. जौ की बोआई के लिए लाइन से लाइन की दूरी 23 सेंटीमीटर व बीज की गहराई 5 से 6 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. असिंचित दशा में अच्छे जमाव के लिए बीज की गहराई 7 से 8 सेंटीमीटर रखनी चाहिए.
खाद व उर्वरक : जौ की अच्छी पैदावार खाद व उर्वरक की मात्रा पर निर्भर करती है. जौ में हरी खाद, जैविक खाद व रासायनिक खाद का इस्तेमाल किया जाता है. खाद व उर्वरक की मात्रा जौ की किस्म, बोने की विधि, सिंचाई की सुविधा वगैरह पर निर्भर करती है.जौ की खेती के लिए असिंचित जमीन में 40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय लाइन में बीज के नीचे डालते हैं. सिंचित जमीन में 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई समय लाइन में बीज के नीचे डालते हैं. 30 किलोग्राम नाइट्रोजन पहली सिंचाई के समय टापड्रेसिंग के रूप में डालते हैं. इस के अलावा हलकी जमीन के लिए 20 से 30 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डाला जाता है. अच्छी उपज के लिए 40 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करते हैं. जौ की पछेती बोआई के लिए खेत में 30 किलोग्राम नाइट्रोजन व 30 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय लाइन में बीज के नीचे डालते हैं और 30 किलोग्राम नाइट्रोजन पहली सिंचाई क समय टापड्रेसिंग के रूप में डालते हैं. ऊसर जमीन में 20 से 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करते हैं.
सिंचाई : फसल में 2 बार सिंचाई की जाती है. पहली सिंचाई कल्ले फूटते समय बोआई के 30 से 35 दिनों बाद करनी चाहिए और दूसरी सिंचाई दुग्धावस्था के समय करते हैं. यदि पानी की कमी हो तो जौ के खेत में 1 बार ही सिंचाई करनी चाहिए. यह सिंचाई कल्ले फूटते समय बोआई के 30-35 दिनों बाद करनी चाहिए. माल्ट के लिए जौ के खेत में 1 बार अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत होती है. ऊसर जमीन में पहली बार कल्ले फूटते समय, दूसरी बार गांठ बनते समय और तीसरी बार दाना पड़ते समय सिंचाई करनी चाहिए.
खरपतवारों की रोकथाम : जौ की फसल में तमाम खरपतवार लगते हैं, जो फसल के लिए घातक हैं. लिहाजा इन की समय पर रोकथाम करने से ही ज्यादा लाभ होता है. जौ के खेत में चौड़ी पत्ती वाले और संकरी पत्ती वाले खरपतवारों का ज्यादा प्रकोप होता है. रोकथाम के लिए खरपतवारनाशी का इस्तेमाल करना चाहिए. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों की रोकथाम के लिए 2,4 डी इथाइल ईस्टर 36 फीसदी की 1.4 किलोग्राम मात्रा या 2,4 डी लवण 80 फीसदी की 0.625 किलोग्राम मात्रा को 700 से 800 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के 1 महीने बाद छिड़काव करना चाहिए. संकरी पत्ती वाले खरपतवारों का ज्यादा प्रकोप होने पर जौ की फसल नहीं उगानी चाहिए.
रोग एवं रोगों की रोकथाम -
आवृत कंडुआ रोग : आवृत कंडुआ रोग में जौ की बालियों में दानों के स्थान पर फफूंदी के काले बीजाणु बन जाते हैं, जो मजबूत झिल्ली से ढक जाते हैं.
अनावृत कंडुआ रोग : अनावृत कंडुआ रोग में जौ की बालियों में दानों के साथ में काला चूर्ण बन जाता है, जो सफेद रंग की झिल्ली के ढका रहता है. बाद में झिल्ली के फट जाने पर फफूंद के तमाम जीवाणु हवा में फैल जाते हैं.
इन रोगों की रोकथाम के लिए जौ के प्रमाणित बीजों की ही बोआई करनी चाहिए.
कार्बंडाजिम 50 फीसदी घुलनशील चूर्ण या कार्बोरिल 75 फीसदी घुलनशील चूर्ण की 25 ग्राम मात्रा से बीजों को प्रति किलोग्राम की दर से शोधित कर के बोआई करनी चाहिए.
पत्तीधारी रोग : पत्तीधारी रोग में जौ की नसों के बीच हरापन खत्म हो कर पीली धारियां बन जाती हैं, जो बाद में गहरे रंग में बदल जाती हैं. इन से फफूंदी के तमाम जीवाणु बन जाते हैं.
पत्तीधारी रोग की रोकथाम के लिए जौ के प्रमाणित बीजों की ही बोआई करनी चाहिए. रोग के दिखते ही रोगी पौधे को उखाड़ कर जला देना चाहिए.
यह आंतरिक बीजजनित रोग है, लिहाजा बीजों को थीरम 2.5 ग्राम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित कर के बोआई करनी चाहिए. धब्बेदार व जालिकावत धब्बा रोग : धब्बेदार व जालिकावत धब्बा रोग में जौ की पत्तियों में अंडाकार भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं. कई धब्बे आपस में मिल कर धारियां बना लेते हैं.
इस की रोकथाम के लिए फफूंदीनाशक कार्बंडाजिम 50 फीसदी घुलनशील चूर्ण या कर्बाक्सीन 75 फीसदी घुलनशील चूर्ण की 25 ग्राम मात्रा से बीजों को प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित कर के बोआई करनी चाहिए.
कीट व उनकी रोकथाम - जौ की फसल में दीमक, गुजिया व माहू वगैरह कीट लगते हैं. इन की रोकथाम के लिए कीटनाशक रसायनों या नीम के बने कीटनाशकों का इस्तेमाल करना चाहिए.
कटाई व भंडारण : जौ की फसल में कटाई काम सुबह या शाम के समय करना चाहिए. बालियों के पक जाने पर फसल को तुरंत काट लेना चाहिए. इस के बाद मड़ाई कर के भंडारण करना चाहिए. सुरक्षित भंडारण के लिए दानों में 10 से 12 फीसदी से ज्यादा नमी नहीं होनी चाहिए. भंडारण से पहले कमरों को साफ कर के उन की दीवारों व फर्श पर मैलाथियान 50 फीसदी के घोल का 3 लीटर प्रति 100 वर्गमीटर की दर से छिड़काव करते हैं. जौ का भंडारण करने के बाद एल्युमीनियम फास्फाइड 3 ग्राम की 2 गोलियां प्रति टन की दर से रख कर कमरे को बंद कर देना चाहिए.
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